रविश की कलम से: नितीश ने दिया इस्तीफ़ा, बिहार की राजनीति में एक नया मोड़

आप देख रहे हैं 2019 लाइव। बिहार की जनता जानती होगी कि भ्रष्टाचार है या नहीं। शायद अधिकारी भी भ्रष्टाचार के सवाल पर टूट रहे इस गठबंधन को हैरत से देख ही रहे होंगे। बी डी ओ, इंजीनियरों अधिकारियों के लिए ये जीत की शाम होगी। वही बेहतर जानते हैं कि जो भ्रष्टाचार ख़त्म नहीं होता उसके लिए दो बड़े नेता कैसे सैद्धांतिक लाइन लेकर अलग हो जाते हैं। सरकार गिर जाती है। इस्तीफ़ा नीतीश के लिए कभी समस्या नहीं रही। वो पहले भी कई मोड़ पर इस्तीफा दे चुके हैं। पिछले एक साल से चल रही अटकलों आज वहीं पहुंची हैं जहां से चलनी शुरू हुई थी। जो सब जानते थे, वही हुआ।

बिहार का महागठबंधन बना था तब भी लालू यादव के ख़िलाफ़ आरोप थे बल्कि वो तो सज़ायाफ्ता थे। उस दौर में भी नीतीश लालू के साथ टिके रहे और अपने लक्ष्य को साफ देखते रहे कि बीजेपी और संघ को हराना है। अंतरात्मा की आवाज़ ने तब नहीं सुना, अब सुना है तो ज़ाहिर है परिस्थितियां बदल गई थीं। जो ऊपर से दिखता है, राजनीति में दो नेताओं के बीच क्या घटता है, कहना मुश्किल है। ये वही बेहतर जानते हैं। यह अच्छा है कि बिहार जहां भ्रष्टाचार लगातार आम जनता को सरकारी महकमों के बाहर चूस रहा है, वहां राजनीति के शिखर पर कोई लाइन खींचता है, इस्तीफा देता है तो वो एक मानदंड कायम तो करता ही है। राहत भी मिलती है। काश ज़मीन पर भी लोगों को राहत मिले। वो देश में कहीं नहीं मिल रही है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ से तमाम मीडिया नियंत्रण के बाद भी ख़बरें छलक कर बाहर आ ही जाती हैं। व्यापम जितना बड़ा घोटाला कहां हजम हो गया, पता ही नहीं चला।

भारत में राजनीतिक भ्रष्टाचार के आरोप साबित तो होते हैं मगर दशकों बीत जाते हैं। साबित होने की मात्रा भी बहुत कम है। इसलिए आरोप की अहमियत होती है। सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार के सवाल पर इस्तीफा देने वाला नेता बड़ा माना जाता है। नीतीश कुमार ने कम से इस्तीफा देकर अपना कद ऊंचा किया है। बिहार की जनता की क्या प्रतिक्रिया होगी, इसके लिए अच्छा ही होता कि इस्तीफा देते ही नीतीश जनता के बीच जाने का फैसला करते। तब इस सवाल पर बिहार की जनता भी उनके इम्तहान को परखती और हो सकता है कि साथ भी आती। शायद जनता को अपना मत देने का मौका न मिले। लालू यादव की भी कापी जनता के बीच एक बार और जांची जाती और बीजेपी की भी। नोटबंदी से जब जनता इतनी ही खुश थी, शराबबंदी से भी तो एक मुकाबला हो ही जाना था। मगर उस जनता की भी सोचिये जो इस वक्त बाढ़ में फंसी है, गंगा पर एक पुल का इंतज़ार कर रही है, क्या वह चुनाव का बोझ सह सकेगी। फिलहाल वो भी जाग रही होगी कि हुआ क्या है। बिहार को बात करने के लिए ज़बरदस्त मसाला मिला है। बात का मसाला ही बिहार के लिए असली पान मसाला है!

नेताओं के मूल सिद्धांत में कई रसायनिक तत्व होते हैं। दो तत्वों के बीच कब क्या प्रतिक्रिया होगी और कौन सा नया सिद्धांत पैदा होगा कहना मुश्किल है। बिहार का जनादेश बीजेपी के ख़िलाफ था, इस बात के बावजूद कि लोकप्रिय नेता नीतीश कुमार लालू यादव की पार्टी के साथ मिलकर लड़ रहे हैं। जनता ने बीजेपी के तमाम आरोपों को नकार दिया। बीजेपी ने तो उस वक्त नीतीश कुमार को भी चारा घोटाले में शामिल होने का आरोप लगा दिया और रविशंकर प्रसाद जैसे बड़े नेता सीबीआई से केस शुरू करने की मांग भी करने लगे। बिहार के जनादेश में धर्मनिरपेक्षता का जो सवाल था अब क्या हुआ, उस पर क्या राय होगी, क्या नीतीश कुमार के लिए ये सवाल गौण हो जाएगा?

भ्रष्टाचार के आरोपों और हाल के लगे नए आरोपों के बीच लालू यादव वही हैं जो थे। लालू यादव ने नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ पुराना केस निकाल कर क्या साबित करना चाहा है, अभी इस पर विस्तार से विचार किया जाना है। क्या हत्या के आरोपों से खुद को बचाने के लिए नीतीश कुमार ने बीजेपी की तरफ जाने का रास्ता चुना। अगर ऐसा है तो इस पर सफाई आनी चाहिए और अदालत को उस केस की सुनवाई शुरू कर देनी चाहिए ताकि जनता के बीच यह भरोसा बने कि बिहार जैसे राज्य के एक लोकप्रिय मुख्यमंत्री को किसी ने ब्लैकमेल नहीं किया है। वैसे लालू के आरोप में कोई खास दम नहीं लगता है।

लालू यादव कह रहे हैं कि पब्लिक में सफाई नहीं दी क्योंकि वकीलों ने मना किया। तेजस्वी और तेजप्रताप 20 महीने से मंत्री हैं। ये अगर भ्रष्टाचार में शामिल होते तो इनके मंत्रालय से संबंधित तो कोई आरोप नहीं लगा। क्या यह कोई सामान्य बात है कि उन पर उनके मंत्रालय से जुड़े भ्रष्टाचार के कोई आरोप नहीं लगे। बीजेपी नेताओं पर भ्रष्टाचार के आरोप लगे मगर उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया। केशव प्रसाद मौर्या से लेकर उमा भारती तक पर आरोप लगे हैं। यह सब बातें बहुत दिनों से हो रही थीं। मगर गठबंधन नहीं बचा। लालू के इन सवालों की भी परीक्षा होती अगर इस वक्त चुनाव होता। पता चलता कि बिहार की जनता लालू यादव और नीतीश कुमार को लेकर क्या सोच रही है।

नीतीश कुमार ने इस्तीफा देकर गठबंधन बचाने का प्रयास क्यों नहीं किया, क्या गठबंधन के भीतर नए नेता के चुनाव का पासा नहीं फेंका जा सकता था? या दोनों नेताओं ने इतनी दूरियां बना ली थीं अब यही विकल्प बचा था। लालू यादव अब यह बात कह रहे हैं तो पहले क्यों नहीं तेजस्वी के इस्तीफे पर विचार किया। बिहार में बीजेपी जीत गई है। वह पहले भी 2019 को लेकर आश्वस्त थी अब और हो गई है। इस लड़ाई को 2019 की नज़र से ।

सुशील मोदी ने अपनी वापसी की है। बीजेपी के भीतर हाशिये पर चल रहे थे। उनका बयान आ गया है कि हम सरकार में शामिल हो रहे हैं। नीतीश कुमार के पद छोड़ने के चंद घंटे के भीतर उन्हें फिर से पद मिल गया है। जो लोग सिद्धांतों के आधार पर इस खेल को देखना चाहते हैं, वो अपना समय बर्बाद करेंगे। राजनेता किस परिस्थिति में बनते हैं और किस मनस्थिति में फैसला लेते हैं वही बेहतर बता सकते हैं। जो नेता है वो राजनीति करता है। जो नेता नहीं है वो राजनीति को लेकर दिन रात उलझा रहता है कि ये क्या हो रहा है। नेता से बड़ा कोई स्टार नहीं होता और उससे बड़ा कोई खिलाड़ी नहीं होता है। विश्लेषक भी मात्र दर्शक होते हैं। पिच पर दो बल्लेबाज़ क्या बात कर रहे हैं, कल्पना ही की जा सकती है। इसलिए खेल का मज़ा देखना है तो रन देखिये। स्कोर बोर्ड देखिये।

वैसे बड़ी ख़बर अमित शाह के राज्य सभा में आने की है। वे अभी तक विधायक थे लेकिन अब राज्य सभा में पहुंचेंगे। अमित शाह के लिए मंत्री बनना कोई बड़ी बात नहीं है मगर अमित शाह का जब नाम आए तो राजनीति की चाल को दस कदम आगे जाकर सोचना चाहिए। पीछे जाकर नहीं।

लेखक: रविश कुमार

(यह लेख रविश कुमार के फेसबुक पेज से लिया गया है| इस लेख को आप यहाँ पढ़ सकते है |)

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